दारुल उ़लूम का उद्देश्य और मौलिक सिद्धान्त

दारुल उ़लूम की स्थापना जिन उद्देश्यों के लिये की गई उन का विस्तार दारुल उ़लूम के पुराने दस्तूर असासी (नियमावली) में निम्न प्रकार बयान किये गये हैं।

(1) क़ुरआन मजीद, तफ़सीर, ह़दीस, अकीदा (धार्मिक विशवास) और उन के ज्ञान के सम्बंध में ज़रूरी और लाभदायक ज्ञान की शिक्षा देना और मुसलमानों को पूर्ण रूप से इसलामी जानकारी देना और प्रचार के द्वारा इसलाम की सेवा करना।   

(2) इसलामी व्यवहार के अनुसार चरित्र निर्माण और विद्यार्थियों के जीवन में इसलामी आत्मा को उत्पन्न करना

(3) इसलाम के प्रचार व प्रसार और दीन की रक्षा व बचाव के लिये भाषण और लेखन से सेवा करना। मुसलमानों में शिक्षा व प्रचार के द्वारा पूर्वजों और नेक महापुरूषों जैसा चरित्र और व्यवहार का जज़बा पैदा करना।

(4) सरकार और हुकूमत के प्रभाव से बचना और ज्ञान व शिक्षा की स्वतन्त्रता को स्थिर रखना।

(5) दीन की शिक्षा के प्रचार व प्रसार के लिये विभिन्न स्थानों पर अ़रबी मदरसे स्थापित करना और दारुल उ़लूम से इलहाक़ (सम्बन्द्ध़) करना। (दस्तूर असासी दारुल उ़लूम 5 õ6)

ये वे उद्देश्य हैं जो सदैव इसलामी इतिहास और रिवायतों (रीति-रिवाजों) के दामन से जुड़े हुए रहे हैं। मगर इस समय उन को जीवित रखने की ज़रूरत इसलिये महसूस हुई थी कि तेरहवीं हिजरी शताब्दी (बीसवीं ईसवी शताब्दी) के मध्य में हुकूमत के परिवर्तन के साथ-साथ मुसलमानों के ज्ञान और व्यवहार और सोच में जो परिवर्तन और बाधा उत्पन्न हो गई थी उस को दूर करने के लिये ऐसे साधन अपनायें जायें जिन के द्वारा इसलाम, इसलामी ज्ञान और इसलामी संस्कृति और समाज की रक्षा की जा सके। दारुल उ़लूम का उद्देश्य इन्ही उद्देश्यों को जीवित रखने और नवीनीकरण करने का है। दारुल उ़लूम के उद्देश्यों और इस ज़माने के मुसलमानों की बदहाली के सम्बन्ध में ह़ज़रत मौलाना मुह़म्मद याक़ूब नानौतवी ने 1301 हिजरी के इनामी जलसे में भाषण करते हुए कहा था ”इस मदरसे की स्थापना केवल दीन को जीवित रखने के लिये हुई है। यह वह समय था जिस में ग़दर (1857 ई॰ का स्वतन्त्रता संग्राम) के पश्चात हिन्दुस्तान ने थोड़ा सा समय गुज़ार लिया था और सामान्य रूप से देखने पर ऐसा लगता था कि दीन का ख़ातमा हो गया है। न कोई पढ़ सके न पढ़ा सके। बड़े-बड़े शहर और केन्द्र इस शिक्षा के थे ख़राब हो गये थे, उलमा परेशान, पुस्तकालय नदारद, एकता समाप्त हो गयी थी। अगर किसी व्यक्ति ने ज्ञान पिपासा की हिम्मत की तो कहां जाये और किस से सीखे। ऐसा लगता है कि बीस बरस में जो उलमा जीवित हैं अपने वास्तविक देश जन्नत में चले जायेंगे तब कोई इतना बताने वाला भी नहीं होगा कि वुज़ू के कितने फ़र्ज़ और नमाज़ में क्या वाजिब हंै। ऐसी परेशानी और नाउम्मीदी में अल्लाह की कृपा ने जोश मारा और अपने नेक बन्दों को इस ओर आकृषित किया जिस से यह मदरसा प्रकट हुआ“। (तारीख दारुल उ़लूम 1ः143)

ह़ज़रत मौलाना क़ारी मुह़म्मद तय्यब साह़ब पूर्व मोहतमिम दारुल उ़लूम देवबन्द का दारुल उ़लूम के उद्देश्य के सम्बन्ध में कहना है –

(1) मज़हब (धर्म):- दारुल उ़लूम धार्मिक स्रोत है और आरम्भ से अन्त तक इसलाम के नियमों का पाबन्ध है, यही कारण है कि यहाॅ का प्रत्येक व्यक्ति इसलाम का नमूना है।

(2) आज़ादी (स्वतंत्रा):- जिस का अर्थ यह है कि दारुल उ़लूम पूर्ण रूप से बाहरी दासता के खि़लाफ़ है। इस का शैक्षिक प्रबन्ध, शिक्षा दीक्षा, आर्थिक प्रबन्ध आदि नीचे से ऊपर तक स्वतन्त्र हैं। दुनिया में यह पहली शिक्षा संस्था (विश्वविद्यालय) है जिस के सामने हुकूमत ने बराबर आग्रह किया है मगर इस ने लाखों रूपये के आग्रह को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

(3) सादगी और मेहनत:- जिसका तात्पर्य यह है कि यहां के उलमा जीवन के संघर्ष में बड़ी-बड़ी मुसीबत को सहन करने के अभ्यस्त हैं।

(4) किरदार (उच्च चरित्र):- जिस का उद्देश्य यह है कि यहाॅं के विद्यार्थी इस उच्च चरित्र का नमूना हैं जिस को उन्हों ने अपने पूर्वजों से प्राप्त किया है। यह चरित्र सारा का सारा आत्मिक है।

(5) इकेडमिक और शैक्षिक रूचि:- यह वह विशेषता है जिसे दारुल उ़लूम को देखने वाला पहले ही क्षणों में अनुभव करता है। यह न कहने की बात है न सुनने से सम्बन्ध है, दारुल उ़लूम की प्रत्येक विशेषता को उसकी ज़िन्दगी के आइने में देखा जा सकता है। यही कारण है कि दारुल उ़लूम के सेवक परोकारिता और क़ुर्बानी का ज़िन्दा नमूना हंै। मुसलमानों को इन लोगों पर विश्वास है और दुनिया के प्रत्येक भाग से इस दारुल उ़लूम के लिये आर्थिक सहायता मिलती है। (तारीख दारुल उ़लूम 1ः145)

दारुल उ़लूम की नीव उन उलमा ने रखी थी जिन के मन खुलूस और ईमानदारी से भरपूर थे। उन के मन और मस्तिष्क मुसलमानों के शानदार भविष्य के लिये बेचैन थे। उन्हों ने अपने को दीन के उत्थान के लिये वक़्फ़ (प्रदान) कर दिया था। अल्लाह ने दारुल उ़लूम और उस की सेवा को स्वीकार किया और इस ने मुल्क और मुल्क से बाहर जो धार्मिक, शैक्षिक और समाजिक सेवायें की हैं वह भुलाई नहीं जा सकती हैं। यहां से हज़ारों आलिम पैदा हुए जिन में बेहतरीन मुहद्दिस, मुफ़्ती, लेख़क और प्रचारक उत्पन्न हुए और आत्मशुद्धि करने वालों की एक लम्बी जमात भी है, बल्कि इन में वह लोग भी हैं जिन्हों नें देश की स्वतन्त्रता और यहां के सुधार के लिये अद्वितीय बलिदान दिये हैं।

 उसूले हश्तगाना (आठ नियम)

दारुल उ़लूम के प्रथम संस्थापक ह़ज़रत मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी ने दारुल उ़लूम और इस तरह के मदरसों को चलाने के लिये आठ उसूल (नियम) बनाये जिस पर आज सारे मदरसों का प्रबंध आधारित है। वह नियम यह हैंः

(1) पहला नियम यह है कि मदरसे के कार्यकर्ताओं को सदैव चन्दे को बढ़ाने में दिलचस्पी रहनी चाहिए इस के लिये आप कोशिश करें और दूसरों से करायें। शुभचिंतकों को यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए।

(2) विद्यार्थियों के भोजन और रहन-सहन के लिये दारुल उ़लूम के शुभचिंतक सदैव प्रयत्नशील रहें।

(3) मदरसे के सलाहकारों को सदैव यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मदरसे की भलाई सोचें, अपनी बात की पक्ष (ज़िद) न की जाए। कभी जब इस की नौबत आ जाए कि दूसरे सलाहकारों को अपनी राय का विरोध पसन्द न आये तो इस मदरसे की नींव में कमज़ोरी आ जाएगी, तात्पर्य यह कि दिल से हर समय मदरसे का लाभ सम्मुख रहे, अपनी बात का पक्ष न हो। इसलिये यह आवश्यक है कि सुझाव देने वाला स्पष्ट रूप से अपनी बात कहे और सुनने वाला इस को धैर्य से सुने अर्थात यह ख़्याल रहे कि अगर दूसरे की बात समझ में आ जायेगी तो वह मुख़ालिफ़ ही क्यों न हो मन से स्वीकार करेगंे। मोहतमिम साह़ब को यह अनिवार्य है कि मशवरे की बातों में वह हितेशियों से मशवरा किया करें चाहे वह शूरा के मेम्बर हों या दूसरा कोई विद्वान मदरसों का शुभचिंतक हो। यदि किसी कारण किसी मेम्बर से मशवरे की नौबत न आए और दूसरे मेम्बरों से मशवरा कर के वह काम कर लिया तो इस कारण नाख़ुश न हों कि मुझे क्यों नही पूछा। अगर मोहतमिम साह़ब ने किसी से भी नही पूछा तो शूरा को आपत्ति हो सकती है।

(4) यह बात बहुत ज़रूरी है कि अध्यापकों में एकता हो और दुनयावी आलिमों की तरह एक दूसरे के पीछे न पड़ें। अल्लाह न चाहे, अगर इस की नौबत आयेगी तो फिर इस मदरसे की ख़ैर नहीं।

(5) पाठयक्रम जो पहले से निधर््ाारित किया जा चुका हो या बाद में मशवरे से निश्चित हो पूरा किया जाए, नहीं तो यह मदरसा या तो ख़ूब आबाद ही नहीं होगा, और अगर आबाद होगा भी तो बेफ़ायदा होगा।

(6) इस मदरसे में जब तक आमदनी का कोई निश्चित तरीक़ा न होगा तब तक इंशाअल्लाह यह मदरसा अल्लाह के भरोसे इसी प्रकार चलेगा और अगर आमदनी का कोई निश्चित स्रोत प्राप्त हो गया जैसे जागीर या कारख़ाना या व्यापार या किसी धनवान का वचन तो फिर ऐसा प्रतीत होता है कि अल्लाह पर भरोसे की दौलत उठ जाएगी और अप्रत्यक्ष सहायता बन्द हो जाएगाी और कार्यकर्ताओं में आपस में मतभेद पैदा हो जाएगा। तात्पर्य यह है कि आमदनी और निर्माण में एक तरह की बेसरो सामानी (अनिश्चित्ता) रखनी चाहिए।

(7) सरकारी सहयोग और धनवानों का साझा भी अधिक हानिकारक मालूम होता है।

(8) जहां तक हो सके ऐसे लोगों का चन्दा बरकत का साधन मालूम होता है जिन को अपने चन्दे से नामवरी की आशा न हो। तात्पर्य यह है कि साफ़ मन से दिया गया चन्दा अधिक स्थाईपन का सामान मालूम होता है।

(तारीख दारुल उ़लूम 1:155)