दारुल उ़लूम देवबन्द के कारनामे

दारुल उ़लूम देवबन्द ने शिक्षा संस्था के नाते जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिये ऐसे विद्वान पैदा किये हैं जिन्हों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में काम किया है। दारुल उ़लूम देवबन्द ने अपने विद्वानों का एक ऐसा गुलदस्ता तैयार किया है जिस में रंग-बिरंगे फूल अपनी सुगंध से प्रसन्नता का वातावरण उतपन्न कर रहे हैं। इस वास्तविकता से कौन परिचित नहीं है कि ज्ञान के इच्छुक ही किसी क़ौम या राष्ट्र की वास्तविक शक्ति होते हैं। मुसलमानों में होनहार नौजवानों की कमी नहीं है, लेकिन आज ऐसे असंख्य नौजवान और बच्चे मौजूद हैं, जो शिक्षा का शौक़ तो रखते हैं मगर उन के मार्ग में आर्थिक परेशानियां रूकावट हैं। वे चलना चाहते हैं मगर चल नहीं सकते, उभरना चाहते हैं मगर उभर नहीं सकते। इस मजबूरी को अनुभव करके दारुल उ़लूम देवबन्द और उसके विद्वानों द्वारा स्थापित किये गये तमाम दीनी मदरसों में विद्यार्थियों के लिये मु़फ़्त शिक्षा के साथ-साथ खाने-पीने और रहने का भी मु़फ़्त प्रबन्ध किया।

दारुल उ़लूम देवबन्द ने ज्ञान के इच्छुकों के लिये रास्ता साफ़ कर दिया है। इन तमाम रुकावटों को समाप्त कर दिया है जो शिक्षा प्रप्ति में बाधक थीं। अतः आज तक दीनी मदरसों में शिक्षा पाने वाले निःसंदेह सफ़ल जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और उप महाद्वीप में प्रतिदिन उनकी ज़रूरत बढ़ रही है। मदरसों से पढ़े लिखे व्यक्तियों का भविष्य इस लिहाज़ से भी संतोष जनक है कि शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात वे जीवन की किसी भी लाइन को अपनायें उसमें सफल रहते हैं और बेरोज़गारी की शिकायत इनके सम्बन्ध में बहुत कम ही सुनने में आती है जबकि इस समय सरकारी शिक्षा पाने वालों में बेरोज़गारी की शिकायत आम है।

अपनी एक सौ पचास साल की तारीख़ में दारुल उ़लूम ने हिन्दुस्तानी मुसलमानों को जहां एक ओर सामाजी जीवन का उन्नतिशील दृष्टिकोण दिया है, तो वहीं दूसरी ओर उन को सूझबूझ का संतुलन भी दिया है। आज मुसलमानों का जो वर्ग इसलामी दृष्टिकोण को पूर्ण रूप से अपनाये हैं इस्लामी सोच का संतोष भरा आकर्षण और सही इस्लामी जीवन अपनाये हुए हैं, वे दारुल उ़लूम का इतिहास और शिक्षा का प्रयत्न और परिणाम है। धार्मिक शिक्षा होने के बरखि़लाफ़ यहां का वातावरण रूढ़िवादी या दक़ियानूसी नहीं रहा है। इसमें कोई शंका नहीं कि दारुल उ़लूम एक ऐसी शिक्षा संस्था है जो क़दीम व जदीद (नये-पुराने) के हसीन संगम पर क़ायम है और जिस का 150 साला शानदार इतिहास है।

दारुल उ़लूम की स्थापना अचानक ही नहीं हो गयी। इसकी स्थापना में भाग लेने वाले हज़रात केवल प्रत्यक्ष ज्ञान ही से वास्ता नही रखते थे बल्कि उनके दिल अल्लाह की तजल्लियों से प्रकाशमान भी थे जिन को विशेष आत्मज्ञान के द्वारा दारुल उ़लूम की स्थापना पर नियुक्त किया गया था। दारुल उ़लूम के पांचवें मोहतमिम ह़ज़रत मौलाना हाफ़िज़ मुह़म्मद अह़मद साह़ब का कथन है। ”सांसारिक कारणों से इस मदरसे को जो कुछ प्रसिद्धि, सम्मान, उन्नति प्राप्त हुई है यह केवल अल्लाह का उपहार और विशेष अहसान इस मदरसे पर है। सदैव से इस मदरसे को अल्लाह के बन्दों की संरक्षता नसीब रही जिन की तवज्जो बातनी से (आयात्मिक लगाव) से दिन प्रतिदिन इस मदरसे ने हर प्रकार की तरक़्क़ी प्राप्त की। सदस्यों में सदभावना, अध्यापकों में एकता प्रत्येक कार्य में भलाई इन्ही हज़रात के लगाव की अलामत है।” (याददाश्त बनाम अराकीन शूरा दिनांक 26 ज़ुलहिज्जा 1315 हिजरी इजलास मजलिस-ए-शूरा)

इस अवसर पर यह जानना बहुत आवश्यक है कि हिन्दुस्तान के मुसलमानों और दूसरे देशों में दारुल उ़लूम की शिक्षा के क्या परिणाम निकल रहे हैं क्योंकि किसी कार्य की सफलता का आंकड़ा वास्तव में उस के परिणाम से लगता है इस सम्बन्ध में एक समय पूर्व लाहौर के प्रसिद्ध दैनिक समाचार पत्र ’ज़मींदार’ ने दारुल उ़लूम देवबन्द के सम्बन्ध में लिखा था “इस समय हिन्दुस्तान की चारों दिशाओं के बीच धार्मिक ज्ञान की जानकार जितनी हस्तियां दिखाई देती हैं उनमें बड़ा भाग इसी ज्ञान के दरिया (दारुल उ़लूम) से शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं। हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े उलमा ने इसी मदरसे में शिक्षा प्राप्त की है। वास्तव में शैक्षिक सेवा में हिन्दुस्तान की कोई शिक्षा संस्था इसका मुक़ाबला नहीं करती। यही नहीं बल्कि बाहरी मुल्कों में भी एक दो को छोड़ कर ऐसा दारुल उ़लूम नहीं जो इससे टक्कर ले सके और जिस न दीन इस्लाम की इतनी सेवा की हो।” (दैनिक ज़मीदार लाहौर दिनांक 24 जून 1923 ई0 संदर्भ तारीख़ दारुल उ़लूम पृष्ठ 425 खण्ड एक)

वास्तविकता यह है कि मुसलमानों की सामूहिक ज़िन्दगी के इतिहास में दारुल उ़लूम की शैक्षिक और तबलीग़ी संघर्ष का बड़ा हिस्सा है। दारुल उ़लूम की लम्बी ज़िन्दगी में कितने ही तूफ़ान आये और राजनीति में कितने ही इन्क़लाब आये मगर यह संस्था जिन उद्देश्यों को लेकर चली थी बड़ी दृढ़ता और साबित क़दमी के साथ उन को पूरा करने में लगी रही। फ़िक्र व ख़्याल के इस उथल-पुथल और फ़ितना फैलाने वाले आन्दोलनों के दौर में अगर साधारण रूप से अ़रबी मदरसे और विशेष रूप से दारुल उ़लूम जैसी संस्था का अस्तित्व न होता तो कहा जा सकता कि आज मुसलमान किसी बड़े भंवर में फंसे होते।

प्रचार, प्रसार, शिक्षा-दीक्षा और समाज सुधार का कोई कोना ऐसा मैदान नहीं जहां दारुल उ़लूम के पढ़े-लिखे कार्यरत न हों और इस्लामी समाज के सुधारने में उन्हों ने अपना जीवन न लगाया हो। समाज सुधार के बड़े-बड़े जलसों में जो रौनक़़ है वह दारुल उ़लूम के उच्च कोटि के उलमा के कारण ही है। बड़े-बड़े इसलामी मदरसों की मसनद तदरीस की ज़ीनत आज यही लोग हैं। ख़्वाजा ख़लील अह़मद शाह लिखते है ”दारुल उ़लूम देवबन्द जो हिन्दुस्तान ही में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इसलामी शिक्षा का केन्द्र है और जामिया अज़हर के बाद दुनिया में इसका एक विशेष स्थान है। यही मदरसा है जिस न हिन्दुस्तान में इस्लामी शिक्षा के दरिया बहाये हिन्दुस्तान के कोने-कोने में यहां से पढ़े हुए दीन की शिक्षा और इस्लाम की सेवा में लगे हुए हैं। दारुल उ़लूम देवबन्द ने दीन और दीन की शिक्षा की जो सेवा की है वह सूर्य की भांति प्रकाशमान है। हां, कोई अन्तरात्मा का अंधा हटधर्म और सचाई का शत्रु अपनी आंखे बन्द करे तो इसका इलाज नहीं” (तारीख़ दारुल उ़लूम पृष्ठ 1:452)

इसलामी दुनिया के बहुत कम देश ऐसे हैं जहां से दीन की इच्छा रखने वाले अपनी संतुष्टि के लिये इस दारुल उ़लूम में आये न हों। अतः पिछली एक शताब्दी में हज़ारों विद्यार्थी इस शिक्षा संस्था से शिक्षा प्रप्त करके ज्ञान को फैलाने का काम कर रहे हैं। श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, मलाया, ब्रमा, चीन, मंगोलिया, तातार, क़ाजान, साउथ अफरीक़ा, बुख़ारा, समरक़न्द, अफग़ानिस्तान, मिस्र, शाम, यमन, इराक़, यहां तक कि मदीना मुनव्वरा और मक्का मुअज्जमा से भी विद्यार्थी यहां पढ़ने के लिये आये। यह कुछ कम सम्मान है कि वह देश जो नबुव्वत के ज्ञान से सीधे रूप में कभी लाभान्वित न हुआ हो वह तमाम इसलामी दुनिया की दीनी शिक्षा का केन्द्र बन जाये, यहां तक कि हरमैन शरीफैन (मक्का-मदीना) में भी इसी ज्ञान के सूर्य की किरणें प्रकाश फैला रही हैं। यह सौभाग्य भी किसी दूसरी शिक्षण संस्था के भाग्य में नही आया कि इस के विद्यार्थी ने मदीना मुनव्वरा और विशेष रूप से मस्जिद नबवी में अध्यापन कार्य किया हो। ह़ज़रत मौलाना ख़लील अह़मद सहारनपुरी ”बज़लुल मजहूल“ के लेखक, ह़ज़रत मौलाना हुसैन अह़मद मदनी ने वर्षों तक मदीना मुनव्वरा ही की मस्जिद में ह़दीस नबवी को पढ़ाया और ज्ञान के दरिया बहाये जिस से अ़रब के अतिरिक्त, मिस्र, शाम और इराक़ के विद्यार्थीयों ने लाभ प्राप्त किया और ज्ञान की प्यास बुझाई। ह़ज़रत मौलाना हुसैन अह़मद मदनी के बड़े भाई ह़ज़रत मौलाना सय्यद अह़मद ने जो दारुउ़लूम से पढ़े थे, मदीना मुनव्वरा में मदरसतु-ल-शरिया के नाम से एक मदरसा जारी किया जिस से मदीना मुनव्वरह के लोग लाभ उठा रहे हैं। मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने मक्का मुकर्रमा में मदरसा सौलतिया स्थापित किया। यह मदरसा भी दारुल उ़लूम की रूप रेखा पर आधारित है। इस प्रकार मक्का मुकर्रमा ही में दूसरा मदरसा मौलाना इसह़ाक़ अमृतसरी ने स्थापित किया जो दारुल उ़लूम देवबन्द के पढ़े लिखे थे। (तारीखे दारुल उ़लूम 1:456)

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