दारुल उ़लूम की व्यवस्था
दारुल उ़लूम देवबन्द का एक दस्तूर असासी (नियमावली) है जिस के द्वारा दारुल उ़लूम के सभी शैक्षिक और प्रबंधन संबंधी कार्य किये जाते हैं। नियमावली की रोशनी में मजलिस-ए-शूरा कायम है और उस की अगुआई में दारुल उ़लूम काम करता है।
मजलिस-ए-शूरा (प्रबन्धक निकाय)
दारुल उ़लूम देवबन्द की व्यवस्था आरम्भ ही से शूरा के नियमों पर आधारित है। मजलिस-ए-शूरा की यह ज़िम्मेदारी है कि वह दारुल उ़लूम के तमाम कार्यों की निगरानी (देखरेख) रखे। हिन्दुस्तान में उस समय लोकतन्त्र की व्यवस्था से आम तौर पर जनता नावाक़िफ़ थी। दारुल उ़लूम ने अपने आरम्भिक काल से ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया और इस व्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाकर क़ौम (समाज) के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया। यही कारण है कि इस व्यवस्था के आपसी चिन्तन में बड़ी विशालता पैदा हुई। ह़ज़रत मौलाना मुह़म्मद क़ासिम साह़ब नानौतवी ने अपने आठ नियमों के तीसरे नियम में कहा है कि सलाहकार सदैव मदरसे के लाभ को दृष्टिगत रखें और अपने विचार के विरोध को बुरा न समझें नहीं तो मदरसे पर इसका बुरा प्रभाव पडेगा। ”विचारों की स्वतन्त्रता” और ”लोकतांत्रिक व्यवस्था” यह दो सिद्वान्त हैं जिनसे अच्छा कोई दूसरा तरीक़ा नहीं है। इस प्रकार रचनात्मक समीक्षा की राह खुल जाती है जो किसी संस्था की उन्नति के लिये ज़रूरी है।
मजलिस-ए-शूरा दारुल उ़लूम की सर्वाधिकार प्राप्त कमेटी है। दारुल उ़लूम की पूरी व्यवस्था इसी मजलिस के अधिकार में है। दारुल उ़लूम के प्रत्येक कर्मचारी के लिये इस कमेटी के नियमों और आदेशों को पालन करना अनिवार्य होता है। मजलिस-ए-शूरा दारुल उ़लूम को चन्दा देने वालें की वकील है और दूसरी ओर दारुल उ़लूम की आमदनी व ख़र्च और व्यवस्था के कामों को बहुमत के आधार पर पूर्ण कराती है और इसी आधार पर निर्णय लेती है। दारुल उ़लूम के तमाम फैसले शूरा के नियमों के आधार पर होते हैं। दारुल उ़लूम के सभी नियम व क़ानून यही मजलिस बनाती है। दारुल उ़लूम की चल और अचल संपत्ति और वक़फ़ की जायदादें भी इसी मजलिस के अधिकार में होती हैं।
शूरा के सदस्यों की संख्या 21 होती है जिसमें कम से कम 11 का आ़िलम होना आवश्यक है बाक़ी दूसरे सदस्य प्रसिद्ध मुसलमानों में से चुने जाते हैं, मगर दो सदस्य देवबन्द के निवासी होने आवश्यक हैं। मोहतमिम और सदर मुदर्रिस अपने पद से इस मजलिस के सदस्य होते हैं। इस मजलिस के साल में दो जलसे (बैथक) होते हैं। पहला मुहर्रम के महीने में और दूसरा रजब के महीने में। इजलास के लिये कम से कम एक तिहाई सदस्यों की संख्या होना आवश्यक है।
मजलिस-ए-अ़ामिला (कार्यकारिणी समिति)
मजलिस-ए-शूरा के अधीन 1345 हिजरी (1927 ई.) से मुस्तक़िल तौर पर मजलिस-ए-अ़ामिला क़ायम है। मजलिस-ए-अ़ामिला का काम शूरा के कामों में मदद करना है और शूरा के द्वारा दिये गये अधिकारों के आधार पर दारुल उ़लूम के प्रबन्धकीय कार्यों को व्यवहारिक रूप देना है। मजलिस-ए-अ़ामिला, मजलिस-ए-शूरा के फैसलों को लागू करने के लिये ज़िम्मेदार है। मजलिस-ए-अ़ामिला दारुल उ़लूम की व्यवस्था और दफ़्तरों के हिसाब और कार्यों की निगरानी (देखरेख) की ज़िम्मेदार है।
इस मजलिस के सदस्यों की संख्या 9 (नौ) होती है। मोहतमिम और सदर मुदर्रिस (प्रधानाध्यापक) अपने पदों के अनुसार इस बाॅडी के स्थाई सदस्य होते हैं जबकि बाक़ी सदस्य मजलिस-ए-शूरा से चुने जाते हैं। इस मजलिस का चुनाव सालाना होता है। मजलिस-ए-अ़ामिला के साल भर में चार जलसे होते हैं। पहला जसला रबीउलअव्वल, दूसरा जुमादल अव्वल, तीसरा शाबान और चैथा जलसा ज़ीक़ादह में होता है। मजलिस-ए-अ़ामिला का कोरम पांच सदस्यों से पूरा हो जाता है।
दारुल उ़लूम का प्रबन्धन व प्रशासन
मोहतमिम (कुलपति)
दारुल उ़लूम के प्रबंध के सर्वोच्च पदाधिकारी दारुल उ़लूम के मोहतमिम होते हंै जो मजलिस-ए-शूरा की नुमाइन्दगी करते हंै तथा तालीमात के अलावा दारुल उ़लूम के तमाम विभागों की निगरानी करते हंै। मजलिस-ए-शूरा के प्रबन्ध की तमाम ज़िम्मेदारियों और कर्तवयों को निभाते हंै और विभिन्न कार्यवाहियों का उत्तरदायी होते हैं।
आवश्यकता के अनुसार दारुल उ़लूम के मोहतमिम की सहायता के लिये एक या दो नायब मोहतमिम होते हैं जिन को मोहतमिम अपनी देखरेख में अलग-अलग कार्यभार व ज़िम्मेदारियां सौंपता है। ये नायब मोहतमिम, मोहतमिम की अनुपस्थिति में भी सीमित अधिकारों के साथ कार्य करते हैं।
इस महान पद के लिये हमेशा यह नियम सामने रखा गया है कि इस के लिये ऐेसे व्यक्ति को चुना जाये जो ज्ञान और ईमानदारी और इन्तज़ामी कामों में विशेष योग्यता रखते हों और देश में अपना प्रभाव भी रखते हों। दारुल उ़लूम देवबन्द को ऐसे व्यक्ति और विद्वान आरम्भ से ही मिलते रहे हैं जिन्हों ने अपनी योग्यता से ऐसी मिसालें पैदा की हैं जो आाज के समय में मिलनी कठिन हैं।
सदर मुदर्रिस (प्रधानाध्यापक)
दारुल उ़लूम की तालीमी कार्यवाहियों की निगरानी के लिये सदर मुदर्रिस का पद क़ायम है। सदर मुदर्रिस तालीमात (शिक्षा) विभाग के ज़िम्मेदार होते हैं और मजलिस-ए-शूरा के सदस्य होते हैं। सदर मुदर्रिस की ज़िम्मेदारी में तालीमी कार्यों की देखरेख, छात्रों की अख़लाक़ी और धार्मिक तरबियत (नैतिक और चरित्र निर्माण), परीक्षा का प्रबन्ध, तालीमी रिपोर्ट तैयार करके मजलिस-ए-शूरा में पेश करना आदि शामिल हैं।
मजलिस तालीमी (शैक्षणिक परिषद)
तमाम कक्षाओं जैसे अ़रबी, फ़ारसी, उर्दू, दीनियात और तजवीद आदि के कार्यों के प्रबन्ध और सुझाव देने के लिये सदर मुदर्रिस के लिये एक तालीमी कमेटी होती है। इस कमेटी का कार्य दाखि़ले की परीक्षायें लेना, निसाब-ए-तालीम (पाठ्यक्रम) में आवश्यकता के अनुसार फेरबदल करना आदि होते हैं। इस मजलिस के सदस्य मोहतमिम, सदर मुदर्रिस व नायब मोहतमिम और अन्यों में दो उच्च शिक्षक होते हैं। इस कमेटी का मजलिस-ए-शूरा की ओर से एक नायब नाज़िम भी होते हैं जब कि सदर मुदर्रिस इस कमेटी के अध्यक्ष (नाज़िम) होते हैं।