दारुल उ़लूम देवबन्द की यह जमात ‘ अहल-ए-सुन्नत वल-जमात‘ है, जिसकी नींव क़ुरआन व ह़दीस (किताब व सुन्नत) और इजमा व क़यास पर स्थिर है। इस के यहां तमाम मसलों में प्रथम स्थान क़ुरआन व ह़दीस को प्राप्त है जिस पर पूरे दीन का भवन खड़ा हुआ है। इस के यहां किताब व सुन्नत की प्राप्ति केवल अध्यन से नही बल्कि पूर्वजों के कथन और उनसे मिलने वाली विरासत की सीमाओं में रह कर और उस्तादों और पीरों की संगत और शिक्षा-दीक्षा ही से निश्चित हो सकती हंै। वह रिवायतों के संकलन से विश्लेषणकर्ता के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर तमाम रिवायतो ं (कथनों) को इसी के साथ सम्बंधित करता है, और सबको धीरे-धीरे अपने-अपने द्देश्य पर इस प्रकार चस्पां करता है कि सब एक ही ज़ंजीर की कड़ियाॅं मालूम हों। इसी बिना पर जमात की दृष्टि एक ऐसा गुलदस्ता दिखाई देता है जिस में हर रंग के इल्मी व अमली फूल अपने-अपने स्थान पर खिले हुए नज़र आते हैं।
यहां मुहद्दिस (ह़दीस के जानने वाले) होने के माने फ़क़ीह (धार्मिक क़ानून जानने वाले) से लड़ने या फ़क़ीह होने के माने मुहद्दिस से तंग होजाने या तसव्वुफ़ पसन्दी के माने इल्म-ए-कलाम की दुश्मनी के नहीं बल्कि इस के सुसंगठित मसलक के अधीन इस शिक्षा संस्था का फ़ाज़िल (स्नातक) एक ही समय में मुहद्दिस, फ़क़ीह, मुफ़स्सिर, मुफ़्ती, मुतकल्लिम, सूफी और हकीम सिद्ध होता है।
इसी प्रकार इस में आत्मिक शुद्धी के विचार भी ज़रुरी हंै। इस ने अपने चाहने वालों को इल्म (ज्ञान) की ऊंचाइयों से संवारा और मानवीय अख़लाक़ (चरित्र) से भी सजाया। इस जमात के लोग एक और इल्मी और अख़्लाक़ी ऊंचाइयों पर स्थिर हुए वहीं विनम्रता के गुण से भी भरपूर हुए, न घमण्ड का शिकार और न अपमानता में फंसे। वह जहां इल्म और अख़लाक़ की ऊंचाइयों पर पहुंच कर सामान्य से ऊंचे दिखाई देने लगते है वहीं विनम्रता (मिलनसारी) के गुणांे से भरपूर होकर साधारण लोगों में मिले जुले रहते हैंै।
इस सुसंगठित, सुट्टढ़ और संतुलित तरीक़े से दारुल उ़लूम अपनी ने शैक्षिक सेवाओं में उŸतर में साईबेरिया से लेकर दक्षिण में सुमात्रा जावा तक और पूर्व में ब्रमा से लेकर पश्चिम में अ़रब व अफ्रीक़ा तक इस्लाम धर्म का प्रकाश फैला दिया। दूसरी ओर राजनीतिक और राष्ट्र की सेवा से भी इस के उ़लमा ने कभी भी मुंह नहीं मोड़ा यहां तक कि 1803 ई, से 1947 ई, तक इस जमात के लोगों ने अपने-अपने रंग में बड़े बड़े बलिदान दिये जो इतिहास के पन्नों में सुरक्षित हैं। किसी समय भी इन वीरों के राजनीतिक कार्यों पर पर्दा नही डाला जा सकता। विशेष रुप से तेरहवीं सदी हिजरी की आधी शताब्दी के अंत में मुग़लिया हुकूमत के पतन के समय ह़ज़रत हाजी इमदादुल्लाह साह़ब की संरक्षता में उन के दो विशेष मुरीदों ह़ज़रत मौलाना क़ासिम साह़ब और ह़ज़रत मौलाना रशीद अह़मद साह़ब गंगोही और उन के अनुयाइयों के क्रांतिकारी कारनामों और गिरफ़्तारियों के वारन्ट पर उन की गिरफ़्तारी और जेल में क़ैद हो जाने की सच्चाई को न झुठलाया जा सकता है और न भुलाया जा सकता है। इन खि़दमात का सिलसिला लगातार आगे बढ़ता रहा और इन्हीं भावनाओं के आधीन इन बुज़ुर्गों के अनुयाईयों भी क्रांतिकारी कार्यों के रुप में राष्ट्र की सेवा करते रहे। चाहे वह खि़लाफ़त अन्दोलन हो या स्वतन्त्रता संग्राम, इन हज़रात ने अपने पद के अनुसार कार्य किया।
संक्षिप्त यह है कि इल्म और अख़्लाक़ की परिपक्वता इस जमात की वास्तविकता रही है। दृष्टि की विशालता, सहृदयता, राष्ट्र और क़ोम की सेवा इस का विशेष उद्देश्य रहा। लेकिन जीवन के इन तमाम पक्षों में सब से अधिक महत्त्व शिक्षा और इस्लामी ज्ञान को प्राप्त रहा है। जब कि जीवन के ये तमाम पक्ष इल्म ही की रोशनी में ठीक प्रकार से सफल बनाये जा सकते हैं, इसी पक्ष को इस ने उज्जवल रखा।
यह विचारधारा (मसलक) निम्न सात आधार भूत नियमों पर आधारित है। –
(1) शरीअत का इल्म:- इसमें विश्वास, उपासनायें और व्यवहार आदि सभी बातें दाख़िल हैं जिन का सम्बन्ध ईमान और इस्लाम से है। शर्त यह है कि यह इल्म असलाफ़ (पूर्वजों) की करनी और कथनी की सीमाओं में सीमित रहकर उन प्रमाणित उलमा (विद्वानों) से हासिल करें जो दीन के ज्ञाता हार्दिक शिक्षा और तरबियत और संगति प्राप्त किये हुए हों। जिन का आनतरिक और बाहरी ज्ञान और व्यवहार शरीअत जानने और मानने वाले से लगातार पहुंचा हो। स्ंवय पुस्तकें पढ़ने और अध्यन या केवल बौद्धिक खींचा तानी का परिणाम न हो और वह बौद्धिक दलील से ख़ाली भी न हो कि उस इल्म के बग़ैर हक़ व नाहक़, हलाल व हराम, जायज़ व नाजायज़, सून्नत व बिदअत आदि में अन्तर न हो और न ही इस के बग़ैर दीन में स्वंय उत्पन्न किये विचार और दृष्टीकोण से छुटकारा सम्भव है।
(2) तरीक़त पर चलना:- अर्थात सूफी हज़रात के सिलसिले और तज़रबों के नियमों के आधीन (जो किताब और सुन्नत से लिये गये हैं) सभ्यता, अख़लाक़ और मन की शुद्धि और आंतरिक भाव की पूर्णता करना, कि इस के बग़ैर संतुलित चरित्र, चाहत की स्थिरता और आन्तरिक सूझ-बूझ, मानसिक पवित्रता और वास्तविकता सम्भव नहीं।
(3) सूुन्नत का अनुसरण:- यानी जीवन के हर एक पक्ष में ह़ज़रत मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अ़लैहि व सल्लम) के जीवन और उनके कथन का अनुसरण करना और आन्तरिक व बाहर की दशा में शरीअ़त का सम्मान रखकर सुन्नत को अपनाये रखना। इस के बगैर रस्म व रिवाज, जहालत और बिदत से छुटकारा सम्भव नहीं।
(4) हनफ़ी फ़िक़ह:- दारुल उ़लूम के संस्थापक हनफ़ी हैं इसलिये हनफ़ी फ़िक़ह के माने (अर्थ) इजतहादी मसलों में हनफ़ी फ़िक़ह का मानना और मसाइल व फ़तवे को निकालने में इसी उसूले फ़िक़ह की पैरवी करना हैं कि इस के बग़ैर मसलों के नतीजे निकालने में इच्छापालन से बचाव नहीं हो सकता।
(5) क़लाम-ए-मातुरीदियत:- यानी अ़क़ीदों (धार्मिक विशवासों) में सही चिन्तन के साथ, अहल-ए-सुन्नत वल-जमात के तरीक़े पर अशाइरा व मातुरीदी के अर्थों और क़ायदों पर बनाये हुए विश्वासों पर स्थिरता और विश्वास की दृढ़ता को जारी रखना, कि इस के बिना शंकाओं, अनुमानों और भ्रम व शंका से बचाव मुमकिन (सम्भव) नही।
(6) जहालत और गुमराही का विरोध:- यानी ईष्र्यालू गिरोह बन्दों के उठाये हुए फ़ितनों (झगड़ों) की रोक थाम मगर व्यक्ति की ज़बान व बयान में और माहौल की मनोविज्ञान के के साथ व्यक्ति के अनुकूल सुत्रों द्वारा, कि इसके बग़ैर जहालत, बुराइयों और शत्रुओं से शरीअत की सुरक्षा मुमकिन नहीं। इसमें शिर्क, बिदअत और नास्तिकता का खण्डन और गलत रीति रिवाजों का संशोधन और आवश्यकता नुसार लेखन या भाषण आदि सब शामिल हैं।
(7) क़ासमियत और रशीदियत का ज़ौक (लगन):- फ़िर यही पूरा मसलक अपनी संयुक्त शान (वैभव) से जब दारुल उ़लूम के प्रथम संस्थापक ह़ज़रत मौलाना क़ासिम नानौतवी और ह़ज़रत मौलाना रशीद अह़मद गंगोही के हृदय और आत्मा से चलकर स्थित हुआ तो उसने समय की आवश्यकताओं को अपने अन्दर समेट कर एक विशेष लगन और विशेष रंग की सूरत अपना ली जिसे ‘मशरब‘ के शब्दों से जाना गया है। इस लिए दारुल उ़लूम देवबन्द के दस्तूर-ए-असासी (नियमावली) जिसको 1368/1949 में मंजूर किया गया उस के शब्दों में ”दारुल उ़लूम देवबन्द का मसलक अहल-ए-सुन्नत वल-जमात हनफ़ी मज़हब और उस के संस्थापकों ह़ज़रत मौलाना क़ासिम नानौतवी और ह़ज़रत मौलाना रशीद अह़मद गंगोही के मशरब के अनुकूल होगा“ (दस्तूर असासी पृष्ठ 6) इसलिये दारुल उ़लूम के मसलक के निर्माण के अंशों में यह अंश विशेष है जिस पर दारुल उ़लूम की शिक्षा दीक्षा का कारखाना चल रहा है।
(तारीख़ दारुल उ़लूम 1:429-432)